वैदिक दर्शन
विवरण
प्राचीन भारतीय वैदिक वाङ्गमय में अनेक दर्शन होने का नामोल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक विचारधारा के अनुसार तो दर्शन एक ही होता है, अनेक नहीं हो सकते। दर्शन वही है जिसको प्राप्त करने बाद व्यक्ति कहीं भी बन्धन (फंसावट) अनुभव न करे। सब ओर के मार्गों का उसे स्पष्ट भान होता हो। मनु महर्षि ने इसी बात को स्मृति में ६.७४ पर कहा है—
सम्यग्दर्शनसम्पन्न: कम्र्मभिर्न निबध्यते।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस श्लोक को संस्कारविधि के संन्यास प्रकरण में उद्धृत किया है। वहाँ उन्होंने दर्शन को यथार्थ ज्ञान माना है। ‘‘जो संन्यासी यथार्थ ज्ञान वा षड् दर्शनों से युक्त है, वह दुष्ट कर्मों से बद्ध नहीं होता और जो ज्ञान, विद्या, योगाभ्यास, सत्संग, धर्मानुष्ठान वा षड् दर्शनों से रहित विज्ञानहीन होकर संन्यास लेता है, वह संन्यास पद्वी को न प्राप्त होकर जन्म-मरण रूप संसार को प्राप्त होता है।’’
दर्शन शब्द का प्रचलित व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ—‘‘दृश्यतेऽनेन इति दर्शनम्’’ की संगति भी उपर्युक्त अर्थ से लगती है। समग्रता को देखने का सम्यक् दृष्टिकोण ही दर्शन है। अर्थात् दर्शन वही है, जिससे सृष्टि-प्रक्रिया का ठीक-ठीक ज्ञान हो सके। सृष्टि अथवा प्रकृति में मानव और मानव व्यवहार भी समाहित है। इस प्रकार दर्शन एक ही है (और वह वैदिक ही है।) किंतु दर्शन शब्द का अर्थ—वर्तमान काल में सत्य और असत्य विविध विरोधाभासी दृष्टिकोणों को कहने वाला है, अत: हम दर्शन शब्द के साथ वैदिक विशेषण का व्यवहार करेंगे। इस प्रकार वैदिक दर्शन का अर्थ होगा ‘‘समग्रता को यथार्थ रूप में कहनेवाला।’’
षड् दर्शन समन्वय
छ: शास्त्रों में वर्णित ज्ञान एक-दूसरे का पूरक है । वे समस्त वैदिक दार्शनिक सिद्धान्तों का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत करते हैं तथा वैदिक सृष्टि-प्रक्रिया के एक-एक अंग का वर्णन करते हैं। इन शास्त्रों में किसी भी विषय की पुनरावृत्ति नहीं होती । इनका यथार्थ क्रम है —
(१) महर्षि जैमिनि का मीमांसा शास्त्र,
(२) महर्षि कणाद का वैशेषिक शास्त्र,
(३) महर्षि गौतम का न्याय शास्त्र,
(४) महर्षि पतञ्जलि का योग शास्त्र,
(५) महर्षि कपिल का सांख्य शास्त्र,
(६) महर्षि व्यास का वेदान्त शास्त्र ।
इस क्रम को सिद्ध करने वाले आधार निम्न हैं :—
१. छ: शास्त्रों के नामकरण
२. छ: शास्त्रों के उद्देश्य
३. छ: शास्त्रों में प्रतिपादित विषय या विद्याएँ
४. सृष्टि प्रक्रिया के अंग।
५. छ: शास्त्रों में पूर्वापर कर्म को सिद्ध करने वाले अनेक सूत्रों के साक्ष्य
६. स्वामी दयानन्द जी के ग्रन्थों के प्रमाण।
नामकरण —
१. मीमांसा — मीमांसा शब्द का अर्थ ‘जिज्ञासा’ या ‘विचार’ करना है। मोक्ष की अवधारणा में प्राथमिक जिज्ञासा ‘धर्म-ज्ञान’ के रूप में मीमांसा शास्त्र में उपलब्ध होती है । ज्ञान-प्राप्ति के क्रम में श्रवण रूपी कार्य वेद शब्दों को लेकर मीमांसा में स्वीकारा गया है। सुने गये शब्दों को विचारपूर्वक क्रमबद्ध करना, उनका यथायोग्य विनियोग करना, मीमांसा नामकरण को पुष्ट करता है ।
२. वैशेषिक — वैशेषिक शब्द का अर्थ विशेषता बताने वाला है। यह मीमांसा की अपेक्षा से विशेष है। मीमांसोक्त धर्म, दृश्य जगत् आदि का विशेष स्वरूप वैशेषिक में उपलब्ध होता है ।
३. न्याय — प्रमाणों के द्वारा अर्थ का परीक्षण करके निर्णय पर पहुँचना न्याय है। इसे निदिध्यासन भी कहा जा सकता है ।
४. योग — ‘युज समाधौ’ धातु से निष्पन्न योग शब्द, निर्णीत विषय के साक्षात्कार को कहता है। विषय में समाधित हो जाना ही योग है ।
ये चार विद्या प्राप्ति के चार स्तरों का प्रतिनिधित्व कर रहे है। वे चार स्तर हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार ।
५. सांख्य — जिसमें निश्चयात्मक कथन अच्छे प्रकार से वर्णित हो वह ‘सांख्य’ कहलाता है। संख्याएं भी निश्चयत्मकता को कहती हैं अत: उनका कथन भी सांख्य के अन्तर्गत ही है। इसलिए सृष्टि के तत्त्वों की संख्याओं का पृथक्-पृथक् परिगणन सांख्य शास्त्र का प्रतिपाद्य है ।
६. वेदान्त — वेद नाम है ज्ञान का इस प्रकार वेदान्त का अर्थ है ज्ञान का अन्त, ज्ञान की पराकाष्ठा, ज्ञान की चरम सीमा। पूर्व के सभी शास्त्र यहाँ तक पहुँचने में ही निमित्त हैं ।
वेदान्त शास्त्र को उत्तर मीमांसा के नाम से भी स्वीकार किया जाता है। उत्तर मीमांसा का तात्पर्य है — सबसे बाद में की जाने वाली मीमांसा। इसीलिए मीमांसा शास्त्र को पूर्व-मीमांसा सबसे पहले की मीमांसा कहा जाता है। मध्यगत चार शास्त्रों में मीमांसा न होने से उनके नामकरण पृथक् है, किन्तु यदि वैशेषिक को विशेष मीमांसा कहा जाए, तो इन चार शास्त्रों का मध्य मीमांसा के नाम से ग्रहण करना चाहिए ।
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मीमांसा
(धर्म)
वैशेषिक
(विशेष)
न्याय
(तर्क)
योग
(साक्षात्कार)
सांख्य
(प्रकृति)
वेदान्त
(ब्रह्म)