Nyay

न्याय दर्शन​

५.३ न्याय दर्शन परिचय—न्याय दर्शन के सूत्रों के प्रणेता महर्षि गौतम हैं और इन सूत्रों की व्याख्या स्वरूप इन सूत्रों पर प्राचीनतम भाष्य महर्षि वात्स्यायन का उपलब्ध होता है। इन दोनों का सम्मिलित नाम ही प्राचीन न्याय है। न्याय के शेष सभी ग्रन्थ नव्य न्याय के समझे जाते हैं। इन ग्रन्थों में न्याय और वैशेषिक को समान तंत्र स्वीकार कर दोनों की व्याख्या एक साथ करने का प्रयास किया गया है और दूसरे इन ग्रन्थों या टीकाओं की भाषा शैली दुरुह है। इससे प्राचीन न्याय के मन्तव्यों से अनेक स्थलों पर दूर जाते प्रतीत होते हैं।

‘‘प्राचीन न्याय की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती है। १. उद्देश्य, २. लक्षण,  ३. परीक्षा। इसमें नाम कथन को ‘उद्देश्य’ कहते हैं। इस उद्दिष्ट पदार्थ का स्वभाव जो इसे अन्यों से अलग करता है, ‘लक्षण’ कहलाता है। उद्देश्य का यह जो लक्षण किया जा रहा है यह सही भी है या नहीं, ऐसा प्रमाणों द्वारा निश्चित करना परीक्षा कहलाता है।’’

न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय के दो-दो आह्निक हैं। इसमें प्रथम अध्याय के दोनों आह्निकों में उद्देश्य (षोडश पदार्थों का नामकथन) और लक्षण (परिभाषा) दिए गये हैं। शेष चार अध्यायों में इन्हीं लक्षणों की विविध प्रकार से परीक्षा की गई है।

प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में प्रमाणादि नौ पदार्थों के लक्षणों पर विचार किया गया है, द्वितीय आह्निक में वाद आदि सात पदार्थों के लक्षणों का निरूपण किया गया है।

द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की परीक्षा करके चार प्रकार के प्रमाणों को अप्रमाणिक कहने वाली सभी शंकाओं का निराकरण किया गया है। दूसरे अध्याय के दूसरे आह्निक में अर्थापत्ति आदि प्रमाणों को पूर्वोक्त चार प्रमाणों का ही भेद सिद्ध किया गया है।

तृतीय अध्याय से प्रमेयों का परीक्षण प्रारम्भ होता है। प्रथम आह्निक में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ की परीक्षा हुई है। इसके द्वितीय आह्निक में बुद्धि और मन की परीक्षा की गई है।

चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में प्रवृत्ति, दोष, पुनर्जन्म, फल, दु:ख तथा अपवर्ग की परीक्षा हुई है। इस प्रकार इन तीन आह्निकों में सभी बारह प्रमेयों का परीक्षण हो गया है। चतुर्थ अध्याय के द्वितीय आह्निक में दोष के कारणों का विवेचन किया गया है। इसके साथ ही अवयव और अवयवी में भेद, परमाणुओं का निरवयव होना, मिथ्या उपलब्धि समाधि, वाद, जल्प और वितण्डा का भी विवेचन हुआ है।

पञ्चमाध्याय के प्रथम आह्निक में जाति के भेदों का निरूपण करके, द्वितीय आह्निक में निग्रहस्थान के भेदों का निरूपण हुआ है।

न्याय में यह विचार प्रारम्भ करके कि धर्मी का धर्म और धर्म का धर्मी क्यों नहीं होता, प्रमाण और प्रमेय का परस्पर सम्बन्ध बतलाया है और सोलह पदार्थ माने हैं।

Overview

योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?

  • योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
  • वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
  • आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया

योग क्या है ?

  • योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है

मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
Accordion Content
उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?

  • योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
  • ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
  • इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है

Benefits

जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।

पाठ्यक्रम

प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद

  • योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
  • चित्त वृत्तियों का स्वरुप
  • चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
  • योगियों के लक्षण/स्तर
  • ईश्वर प्रणिधान
  • चित्त विक्षेप
  • चित्त प्रसादन
  • समापत्ति
  • अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध

द्वितीय साधन पाद

  • क्रियायोग और उसके लाभ
  • पञ्च क्लेश
  • क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
  • दृश्य और दृष्टा की परभाषा
  • संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
  • अष्टांग योग
  • वितर्क का स्वरुप
  • यम नियम के फल
  • आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार

तृतीय विभूति पाद

  • समाधि व संयम
  • चित्त के परिणाम व उनके संयम
  • शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
  • काया कर्म भाव
  • ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
  • पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
  • प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
  • अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान

चतुर्थ कैवल्य पाद

  • चित्त के भेद
  • कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
  • चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
  • (४.१६-२२)
  • (४.२३-२७)
  • धर्ममेघ समाधि
  • चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा


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