वैशेषिक दर्शन
५.२ वैशेषिक दर्शन परिचय— वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद हैं। ‘‘इसमें द्रव्य को धर्मी मानकर गुण आदि को धर्म मानकर विचार किया है। इन्होंने भी दो प्रमाण माने हैं और छ: पदार्थों का निरूपण किया है।’’
इस शास्त्र के ‘‘वैशेषिक’’ नामकरण के दो आधार दिये जा सकते हैं। प्रथम तो मीमांसा शास्त्र में जिस धर्म की परिभाषा अथवा लक्षण किया गया था उसकी ही विशेष संदर्भ में व्याख्या करने के कारण इसका वैशेषिक नाम दिया गया।
वह विशेष संदर्भ क्या है—ऐहिक और पारलौकिक उन्नति को प्राप्त होना ही धर्म की विशेष व्याख्या का संदर्भ है। वैशेषिक में सम्पूर्ण पदार्थों को छ: वर्गों में बाँटकर व्याख्या की है। वे छ: वर्ग हैं—द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। द्रव्य से अतिरिक्त सभी पांच द्रव्य पर आश्रित हैं। इसलिए वे सभी द्रव्य के धर्म हैं। इस प्रकार धर्म के पदार्थ मीमांसा के लिए पांच विशेष विभाग करने से और उन पाँच विभागों में से भी द्रव्यों के प्रथक् भेद को कहनेवाला विशेष भी एक पदार्थ होने से इसका नाम वैशेषिक होना समझ आता है।
यद्यपि द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य, विशेष के बारे में मीमांसा सूत्रों में बता दिया गया है, किंतु वह विवेचन धर्म प्रधान है, किन्तु यहाँ उनका साधर्म्य और वैधर्म्य जानना विशेष है। इसलिए स्वामी दयानंद के विचार हैं कि ‘‘मीमांसा में धर्म के कथन के उपरान्त वैशेषिक में धर्म की विशेष व्याख्या की गई है।’’
इस प्रकार से इन द्रव्यादि पदार्थों के विभाजन के उपरान्त इनमें साधर्म्य और वैधर्म्य को जानने पर वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही ठीक-ठाक जान लिया जाता है और इस ज्ञान से सर्वश्रेष्ठ सुख नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। इस सुख की प्राप्ति करना ही वैशेषिक शास्त्र का अन्तिम ध्येय है।
‘‘तत्त्वमीमांसा के लिए आधुनिक दर्शनशास्त्री रूद्गह्लड्डश्चद्ध4ह्यद्बष्ह्य (पराभौतिकी) शब्द का प्रयोग करते हैं। भौतिक विज्ञान (क्कद्ध4ह्यद्बष्ह्य) दृश्य जगत् की व्याख्या करता है, किंतु तत्त्वमीमांसा दृश्य जगत् और भौतिक संसार से परे तत्त्व की खोज करता है।’’८१ किंतु वैशेषिक शास्त्र में रूद्गह्लड्डश्चद्ध4ह्यद्बष्ह्य और क्कद्ध4ह्यद्बष्ह्य (तत्त्वमीमांसा और भौतिकी) दोनों एकाकार हो जाते हैं। और तो और रसायन और जीव विज्ञान का समावेश भी इसी के अन्तर्गत हो जाता है।
वैशेषिक शास्त्र में लगभग ३५० सूत्र हैं। प्राचीन टीकाओं में कुछ-कुछ पाठभेद होने के कारण सूत्र संख्या के साथ लगभग शब्द का प्रयोग किया जाता है। ये सूत्र दश-अध्यायों में विभाजित हैं। प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्निक हैं। आह्निक से तात्पर्य एक दिन में पढ़ाया जाने वाला पाठ है। प्रत्येक अध्याय और आह्निक की विषय वस्तु इस प्रकार है—
प्रथम अध्याय में, जिसमें दो आह्निक हैं, उन सभी पदार्थों का वर्णन है, जो समवेत अर्थात् समवाय-सम्बन्ध से युक्त हैं [समवाय-सम्बन्ध का अर्थ नित्य-सम्बन्ध, जो कभी भिन्न न हो। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष—इतने पदार्थों का समवाय-सम्बन्ध होता है।
उसमें भी प्रथम आह्निक में उन पदार्थों का निरूपण हुआ है, जिनकी जाति (सामान्य, ष्टद्यड्डह्यह्य) होती है (अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म का)। द्वितीय आह्निक में सामान्य (जाति) और विशेष का निरूपण किया है।
दो आह्निकों वाले द्वितीय अध्याय में द्रव्य का निरूपण हुआ है, जिसमें प्रथम आह्निक में भूतों (क्षिति, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के लक्षण हैं और दूसरे में दिशा तथा काल का निरूपण है। द्रव्य नव हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा और मन। इनमें प्रथम सात का वर्णन द्वितीय अध्याय में ही हो गया है।
तृतीय अध्याय में जिसमें दो आह्निक हैं, आत्मा और अन्त:करण (आन्तरिक इन्द्रिय=मन) के लक्षण हैं। इनमें भी प्रथम आह्निक में आत्मा का लक्षण है, द्वितीय में अन्त:करण का। [इस प्रकार द्रव्यों की विवेचना समाप्त होती है।] दो आह्निकों वाले चतुर्थ अध्याय में शरीर और उसके उपयोगी तत्त्वों (्रस्रद्भह्वठ्ठष्ह्लह्य, जैसे—परमाणुकारणता आदि) का वर्णन है। प्रथम आह्निक में शरीर के उपयोगियों का ही वर्णन है और दूसरे आह्निक में शरीर का विवेचन है।
दो आह्निकों वाले पंचम अध्याय में कर्म का प्रतिपादन हुआ है। इसमें प्रथम आह्निक में शरीर से निष्पन्न होनेवाले कर्मों का विचार हुआ है, दूसरे आह्निक में मानसिक कर्मों का चिन्तन (विचार) किया गया है। दो ही आह्निकों से विभूषित षष्ठ अध्याय में श्रुतियों में प्रतिपादित धर्म का निरूपण किया गया है। जिसमें प्रथम आह्निक में दान (दान करना) और प्रतिग्रह (दान लेना)—इन दो धर्मों पर विचार किया गया है। द्वितीय आह्निक में चारों आश्रमों के लिए उचित धर्म का निरूपण हुआ है।
उसी प्रकार के विभाजनवाले सप्तम अध्याय में गुणों और समवाय का प्रतिपादन हुआ है, जिसमें प्रथम आह्निक में उन गुणों का प्रतिपादन हुआ है, जो बुद्धि की अपेक्षा नहीं रखते (रूप, रस, गन्ध आदि)। द्वितीय आह्निक में बुद्धि की अपेक्षा रखनेवाले गुणों (द्वित्व, परत्व, अपरत्व, पृथक्त्व आदि) का तथा इसी में सामान्य का भी प्रतिपादन हुआ है। [द्वित्व, एकत्व, बहुत्व आदि को संख्या कहते हैं, वह भी बुद्धि पर निर्भर करती है। इसका विशद विचार आगे करेंगे।]
अष्टम अध्याय में निॢवकल्पक (ढ्ढठ्ठस्रद्गह्लद्गह्म्द्वद्बठ्ठड्डह्लद्ग) तथा सविकल्पक (ष्ठद्गह्लद्गह्म्द्वद्बठ्ठड्डह्लद्ग) प्रत्यक्ष प्रमाण का निरूपण हुआ है। नवम अध्याय में अतीन्द्रिय संयोगादि से होनेवाले प्रत्यक्ष का तथा अनुमान का वर्णन है। दशम में सुख-दु:खादि आत्मा के गुणों का वर्णन एवं त्रिविध कारण का भी प्रतिपादन हुआ है।
Overview
योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?
- योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
- वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
- आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया
- योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है
मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
Accordion Content
उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?
- योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
- ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
- इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है
जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।
पाठ्यक्रम
प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद
- योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
- चित्त वृत्तियों का स्वरुप
- चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
- योगियों के लक्षण/स्तर
- ईश्वर प्रणिधान
- चित्त विक्षेप
- चित्त प्रसादन
- समापत्ति
- अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध
द्वितीय साधन पाद
- क्रियायोग और उसके लाभ
- पञ्च क्लेश
- क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
- दृश्य और दृष्टा की परभाषा
- संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
- अष्टांग योग
- वितर्क का स्वरुप
- यम नियम के फल
- आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
तृतीय विभूति पाद
- समाधि व संयम
- चित्त के परिणाम व उनके संयम
- शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
- काया कर्म भाव
- ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
- पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
- प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
- अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान
चतुर्थ कैवल्य पाद
- चित्त के भेद
- कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
- चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
- (४.१६-२२)
- (४.२३-२७)
- धर्ममेघ समाधि
- चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा