योग दर्शन
चित्त (मन) की वृत्तियों को पूर्णत: रोक देना योग होता है, इसी स्तिथि को दार्शनिक रूप से महर्षि पतंजलि ने दर्शन रूप में प्रस्तुत किया है। महर्षि पतञ्जलि रचित योगदर्शन में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्टरूप से कथन किया गया है। ईश्वर का सत्यस्वरूप, मोक्षप्राप्ति के उपाय तथा वैदिक उपासना-पद्धति का विशेषरूप से वर्णन किया गया है। योग किसे कहते हैं? जीव के बन्धन के कारण क्या है? योग-साधक की विभिन्न स्थितियाँ तथा विभूतियाँ कौन-कौन सी हैं? मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं? मन का सम्बन्ध कब तक पुरुष के साथ है ? आदि सभी विषय योग दर्शन से हमे ज्ञात होते है। परमेश्वर के मुख्य नाम ‘ओ३म्’ (प्रणव) का जाप न करके अन्य नामों से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना अपूर्ण ही है। योग-दर्शन के अनुसार परमेश्वर का ध्यान बाह्य न होकर आन्तरिक ही होता है। जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है। इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है। योग-दर्शन पर महर्षि-व्यास का प्राचीन एवं प्रामाणिक-भाष्य उपलब्ध होता है।
योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर चित्त में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है। ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है। इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है।
पातञ्जल योगदर्शन में चार पाद हैं। समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद।
प्रथमपाद में उत्तम अधिकारी के लिए समाधि का वर्णन किया गया है।
द्वितीयपाद में मध्यम अधिकारी के लिए साधन सहित समाधि का वर्णन किया गया है।
तृतीयपाद में योग से मोक्षसिद्धि में श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए योग से प्राप्त विभूतियों का वर्णन किया गया है।
चतुर्थपाद में कैवल्यप्राप्ति के उपयोगी विषयों का निरूपण करते हुए कैवल्य अर्थात् मोक्ष का वर्णन किया गया है। प्रथमपाद में ५१, द्वितीयपाद में ५५, तृतीयपाद में ५५ और चतुर्थपाद में ३४ सूत्र हैं। कुल सूत्र संख्या १९५ है।
Overview
योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?
- योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
- वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
- आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया
- योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है
मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
Accordion Content
उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?
- योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
- ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
- इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है
जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।
पाठ्यक्रम
प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद
- योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
- चित्त वृत्तियों का स्वरुप
- चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
- योगियों के लक्षण/स्तर
- ईश्वर प्रणिधान
- चित्त विक्षेप
- चित्त प्रसादन
- समापत्ति
- अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध
द्वितीय साधन पाद
- क्रियायोग और उसके लाभ
- पञ्च क्लेश
- क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
- दृश्य और दृष्टा की परभाषा
- संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
- अष्टांग योग
- वितर्क का स्वरुप
- यम नियम के फल
- आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
तृतीय विभूति पाद
- समाधि व संयम
- चित्त के परिणाम व उनके संयम
- शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
- काया कर्म भाव
- ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
- पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
- प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
- अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान
चतुर्थ कैवल्य पाद
- चित्त के भेद
- कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
- चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
- (४.१६-२२)
- (४.२३-२७)
- धर्ममेघ समाधि
- चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा