भक्ति योग
Quote – भौतिक विषयों से प्रेम आसक्ति है। किंतु भक्ति योग तो श्रद्धा से ईश्वर का स्मरण व उसमें समर्पण है।
सुख के स्रोत शांत चित्त से, आनंद के सागर तक पहुंचने की यात्रा है।
श्रद्धा से ईश्वर का स्मरण व उसमें समर्पण ही भक्ति योग है ।
वैदिक भक्ति साधना क्या है ?
शांत प्रसादित चित्त में ही भक्ति भाव उत्पन्न होते हैं। भक्ति का वास्तविक स्वरूप ईश्वर भक्ति ही है। ऋषियों की विशेष विधि द्वारा आत्मा को परम से जोड़ा जाता है।
प्रक्रिया ??
प्रसादित चित्त शान ठोकर जप करने के अनुकूल बनता है ।
जप की इस आदि विधि को ऋषि मुनियों ने परंपरा द्वारा जीवित रखा है, इसलिए यह गुरु शिष्य परम्परा में ही देने योग्य है ।
किस का जप करें, कैसे करें, कितना करें आदि सभी शंकाओं के निवारण व विधि अभ्यास होते हैं।
लाभ
सभी समस्याओं के समाधान स्वत: ही अनुभव होते हैं। व्यक्ति मृत्यु, शोक, हानि-लाभ, ईर्ष्या, द्वेष से ऊपर उठ जाता है। सभी को एक समान देखता है, ऊंच-नीचता समाप्त हो प्राणी मात्र से प्रेम होता है। जीवन में समस्या लगने वाली घटनाएं तप का रूप ले लेती हैं। पूर्ण जीवन निर्माण की ओर बढ़ता जाता है।
आध्यात्मिकता में यह चित्त प्रसादन से अग्रिम कदम है। आलौकिक शक्ति का अनुभव सुख से बड़ी शक्ति से रूप में होने लगता है। अदृश्यमान छिपी हुई शक्ति पर विश्वास होने लगता है। ईश्वर से परम प्रेम संबंध स्थापित होता है। भक्तिभाव से परिपूर्ण आत्मा का संसार के लिए नया दृष्टिकोण होता है।
आवश्यक शर्तें
चित्त प्रसादन की परिपक्वता इस कार्यक्रम के लिए आवश्यक शर्त है। विधि असामान्य होने से विशेष पात्र के लिए ही देय है। श्रद्धावान पात्र को शीघ्र ही फल से आनंदित करने वाली है। अतः गुरू के दीक्षित विधि वचन अति पालन करणीय हैं।
Overview
योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?
- योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
- वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
- आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया
- योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है
मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
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उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?
- योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
- ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
- इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है
जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।
पाठ्यक्रम
प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद
- योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
- चित्त वृत्तियों का स्वरुप
- चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
- योगियों के लक्षण/स्तर
- ईश्वर प्रणिधान
- चित्त विक्षेप
- चित्त प्रसादन
- समापत्ति
- अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध
द्वितीय साधन पाद
- क्रियायोग और उसके लाभ
- पञ्च क्लेश
- क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
- दृश्य और दृष्टा की परभाषा
- संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
- अष्टांग योग
- वितर्क का स्वरुप
- यम नियम के फल
- आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
तृतीय विभूति पाद
- समाधि व संयम
- चित्त के परिणाम व उनके संयम
- शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
- काया कर्म भाव
- ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
- पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
- प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
- अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान
चतुर्थ कैवल्य पाद
- चित्त के भेद
- कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
- चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
- (४.१६-२२)
- (४.२३-२७)
- धर्ममेघ समाधि
- चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा