क्रिया योग
योग की प्राप्ति के लिए किया किया जाने वाला योगिक अभ्यास क्रिया योग है।
क्रिया योग क्या है ?
तप, स्वाध्याय और ईश् प्रणिधान क्रिया योग है ।
जीवन में द्वंद्वों को सहना, अध्ययन करना और सभी कर्म ईश्वर को समर्पण करना, ये अभ्यास क्रिया योग कहलाते है, अर्थात ये अभ्यास ही क्रियान्वित होत है।
क्रिया योग से अनुभूति के चरणों का प्रारंभ होता है। इसका अनुभव शांत चित्त के दर्शन से आरंभ होकर चिति शक्ति (जीव) तक जाता है। चित्त व जीव के स्वरुप का ज्ञान होता है।
प्रक्रिया
योगी की दृष्टि से संसार को देखने के लिए योग दर्शन के सिद्धांतों को जानना आवश्यक है, इसलिए स्वाध्याय के अंतर्गत योग शास्त्र को पढना आवश्यक हो जाता है ।
(सभी क्रियाओं का आधार योग दर्शन होने से उसका भी अध्ययन इसी के अंतर्गत कराया जाता है।) 100 घंटे के कार्यक्रम में संपूर्ण क्रियाएं गुरुजी के सानिध्य व संरक्षण में होती है।
लाभ
योग में बाधक शारीरिक व मानसिक क्लेश नष्ट होते है। चेतनता का विकास होता है।
कार्यों में थकान व तनाव नही होता है। अनिद्रा की समस्या समाप्त हो अल्प किन्तु पूर्ण ऊर्जा देने वाली योग निद्रा होती है। मन को भारीपन व तनाव से भरने वाली स्वप्ना निद्रा से मुक्त होता है।
आवश्यक शर्तें
इच्छुक व्यक्ति प्रथम व द्वितीय स्तर में पारंगत हो।
Overview
योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?
- योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
- वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
- आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया
- योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है
मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
Accordion Content
उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?
- योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
- ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
- इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है
जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।
पाठ्यक्रम
प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद
- योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
- चित्त वृत्तियों का स्वरुप
- चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
- योगियों के लक्षण/स्तर
- ईश्वर प्रणिधान
- चित्त विक्षेप
- चित्त प्रसादन
- समापत्ति
- अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध
द्वितीय साधन पाद
- क्रियायोग और उसके लाभ
- पञ्च क्लेश
- क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
- दृश्य और दृष्टा की परभाषा
- संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
- अष्टांग योग
- वितर्क का स्वरुप
- यम नियम के फल
- आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
तृतीय विभूति पाद
- समाधि व संयम
- चित्त के परिणाम व उनके संयम
- शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
- काया कर्म भाव
- ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
- पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
- प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
- अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान
चतुर्थ कैवल्य पाद
- चित्त के भेद
- कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
- चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
- (४.१६-२२)
- (४.२३-२७)
- धर्ममेघ समाधि
- चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा