मुक्ति योग
वैदिक मुक्ति योग साधना स्तर
बंधन के कारण को जानकर उससे छूटना मुक्ति है। उन बन्धनों से उत्पन्न दुखों की पूर्णत: निवृत्ति अर्थात पुन: दुःख न हो ऐसी स्तिथि मुक्ति होती है।
मुक्ति योग क्या है ?
यह वैदिक योगसाधना का अंतिम चरण है। जिसमें 6 दर्शनों का अध्ययन व योगाभ्यास गुरुकुल के परिसर में रहकर कराया जाता है। स्व से आगे के आयामों का मार्गदर्शन विधिवत किया जाता है।
प्रक्रिया
पात्रता परीक्षण उपरांत इस विद्या का उपदेश दिया जाता है। इस वैदिक विद्या के ज्ञानोपरांत शेष जानने योग्य विषय नही रहते हैं। गुरुकुलीय संपत्ति स्वरूप गूढ़ विद्या के पात्र से गुरुदक्षिणा की अपेक्षा की जाती है।
आत्मा की सभी गतियों व शक्तियों का ज्ञान शास्त्र प्रमाण के साथ होता है।
संपूर्ण योगाभ्यास का आधार प्राचीन ऋषि परंपरा का रहेगा। ऋषियों की सभी विशेष विधियों से दीक्षित किया जाता है। अति श्रद्धावान व अनुशासित अभ्यासी ही इस विद्या को पूर्णता से अनुभूव कर पाता है।
लाभ
तीनों नित्य पदार्थ – ब्रह्म, जीव व प्रकृति के सामान्य और विशेष का ज्ञान होता है।
बंधन के कारणों से कैसे छूटे, कैसे अमृत को प्राप्त करें, कैसे बंधन मुक्त अनुभूति करें आदि सभी शंकायें निवृत्त होती हैं।
निष्काम भाव की कर्म विधि को जान कर्माशय वाले कर्मों से छूट जाता है। जन्म-मृत्यु के चक्र, सृष्टि चक्र, अनादि काल चक्र सभी के कारणों को जान छूटता हुआ परम तत्व की ओर गमन करता है।
आवश्यक शर्तें
यह योग साधना का अंतिम चरण है जिसके लिए बाकी सभी स्तरों का अभ्यास अनिवार्य है।
Overview
योग विद्या का मूल स्त्रोत क्या है ?
- योग विद्या का मूल स्रोत वेद है
- वेद के आधार पर ही विभिन्न शास्त्रकारों ने अपने अपने ढंग से योग विद्या का वर्णन किया है
- आधुनिक काल में महर्षि पतंजलि ने योग को दर्शन के रूप में क्रमबद्ध कर योग दर्शन का निर्माण किया
- योग: चित्तवृत्तिनिरोध: अर्थात चित्त की वृत्तियों को पूर्णत: रोकना योग है
मन की वृत्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
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उन्हें रोकने के क्या उपाय है ?
- योगाभ्यासी व्यक्ति ही इन वृत्तियों को समझकर मन में उठने वाले विभिन्न नकारात्मक भावों (इर्षा, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह आदि) को रोक पाने में सक्षम होता है
- ईश्वर की सहायता से ही इन भावों का समाधान संभव है
- इन कुसंस्कारों को हटाने की विस्तृत प्रक्रिया योग दर्शन में प्राप्त होती है
जब तक इन्द्रियाँ बहिर्मुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।
इसलिए ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग-दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।
पाठ्यक्रम
प्रथम समाधि पाद
द्वितीय साधन पाद
तृतीय विभूति पाद
चतुर्थ कैवल्य पाद
प्रथम समाधि पाद
- योग की परिभाषा/लक्षण एवं उसका फल
- चित्त वृत्तियों का स्वरुप
- चित्त वृत्ति निरोध के उपाय
- योगियों के लक्षण/स्तर
- ईश्वर प्रणिधान
- चित्त विक्षेप
- चित्त प्रसादन
- समापत्ति
- अध्यात्म प्रसाद से सर्व निरोध
द्वितीय साधन पाद
- क्रियायोग और उसके लाभ
- पञ्च क्लेश
- क्लेश वृत्ति-हेयत्व व कारण
- दृश्य और दृष्टा की परभाषा
- संयोग; उसका कारण व अभाव का फल
- अष्टांग योग
- वितर्क का स्वरुप
- यम नियम के फल
- आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार
तृतीय विभूति पाद
- समाधि व संयम
- चित्त के परिणाम व उनके संयम
- शब्दार्थ संस्कार प्रत्यय संयम
- काया कर्म भाव
- ब्रह्ममाण्डिय व शरीरस्थ संयम
- पुरुषज्ञान व विभूतियों की विघ्नस्वरूप्ता, बंधन शिथिलता
- प्राण व भूतेंद्रियों पर संयम
- अस्मिता, विवेक व कैवल्य ज्ञान
चतुर्थ कैवल्य पाद
- चित्त के भेद
- कर्माशय, चित्त वासनाएँ व निवारण
- चित्त का काल व परिणाम का सम्बन्ध
- (४.१६-२२)
- (४.२३-२७)
- धर्ममेघ समाधि
- चितिशक्ति की स्वरुप प्रतिष्ठा